Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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समकालीन युग-बोध और कवि लीलाधर जगूड़ी

    1 Author(s):  REENA PARWAL

Vol -  4, Issue- 3 ,         Page(s) : 156 - 160  (2013 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

सन 1960 तक की हिन्दी कविता साठोत्तरी कविता के नाम से जानी गयी, किन्तु उसके बाद कविता में आयी अनेक धाराएं एक ही मुख्य धारा में समाहित हो गर्इ। इस मुख्य धारा की कविता समकालीन कविता के रूप में हमारे सामने है। समकालीन कविता में वर्तमान युग अपने सम्पूर्ण परिवेश के साथ प्रतिबिमिबत होता है। अत: समकालीन कविता को युग से सम्पृक्त युग-बोध की कविता माना गया। यह कविता उस मोह भंग की सिथति को बताती है जो स्वतन्त्रता के बाद लोगों के âदय में उत्पन्न हुआ।

1. समकालीन हिन्दी कविता के बदलते सरोकार, डाॅ. राधा वर्मा, पृ. 7।
2. कवियों की पृथ्वी, अरविन्द त्रिपाठी, पृ. 143।
3. अथातो काव्य जिज्ञासा, सं. डाॅ. मंजुल उपाध्याय, पृ. 214।
4. रात अब भी मौजूद है, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 34।
5. वही, पृ. 84।
6. कवियों की पृथ्वी, अरविन्द त्रिपाठी पृ. 144।
7. घबराए हुए शब्द, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 12।
8. महाकाव्य के बिना, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 120।
9. कविता की संगत, विजय कुमार, पृ. 88
10. इस यात्रा में, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 77।
11. घबराए हुए शब्द, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 98।
12. वही, पृ. 33।
13. कविता की संगत, विजय कुमार, पृ. 87।
14. बची हुई पृथ्वी, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 61।
15. रात अब भी मौजूद है, लीलाधर जगूड़ी, पृ. 65।
16. कविता की संगत, विजय कुमार, पृ. 86।

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