Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh
ISSN 2321 - 9726 (Online) New DOI : 10.32804/BBSSES
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संस्कृत वाङ्गमय में प्रकृति की परिकल्पना: प्रकृति का साहित्यिक एवं अध्यात्मिक महत्त्व
1 Author(s): SUDHA MISHRA
Vol - 15, Issue- 6 , Page(s) : 17 - 24 (2024 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES
भारतीय संस्कृत वाङ्गमय (साहित्य) में एक कहावत बहुत प्रसिद्द है – प्रक्षलानादि पस्य दूरादस्पर्शनं वरं। पैर को कीचड़ में सानकर धोने से अच्छा है कि पैर में कीचड़ लगने ही न दिया जाये। यह वाक्य पर्यावरण प्रदूषण के सन्दर्भ में कही गई है ।