Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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जैन व्याकरण में शाकटायन का अवदान

    2 Author(s):  VANDANA RANI , SAMPAT KUMAR

Vol -  6, Issue- 2 ,         Page(s) : 40 - 44  (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

भारतवर्ष विविध संस्कृतियों का पोषक है। इतिहास साक्षी है कि इस राष्ट्र की गोद में अनेक संस्कृति व सभ्यताएँ पल्लवित एवं पोषित होती रही है, चूँकि अनेक संस्कृतियाँ अपने स्वसंस्कृति के निर्माण से पूर्व केवल विचारमात्र होती है और जैसे-जैसे पल्लवित, पुष्पित एवं संवर्धित होती हैं वैसे-वैसे ही वे संस्कृति का निर्माण करती हैं अर्थात्‌ एक विचारधारा के अनुरूप सामाजिक पद्धति, राजनैतिक पद्धति, धार्मिक चिन्तन एवं शैक्षिक संवर्धन का विकास होना।

  1.  अत्यक्तानुकरणस्यात इतौ, अष्टा. 6/1/98
  2.  अत्यक्तानुकरणस्थानेकाचो{त इतौ, चा.व्या. 5/1/102
  3.  डाजर्हस्येतावतः, जै.व्या. 4/3/85
  4.  डाज्भजो{तो लुगितो, शा.व्या. 1/1/127
  5.  शाकटायन व्या. 1/3/97, 98
  6.  वही, 1/3/100
  7.  वही, 1/3/127
  8.  शा.व्या. 1/3/135
  9.  वही, 1/3/152
  10.  वही, 1/3/163
  11.  अजाद्यतष्टाप्, अष्टा. 4/14
  12.  डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्, वही 4/1/13
  13.  यघश्चाप्, वही 4/1/74
  14.  ट्टन्नेभ्यो घीप्, वही 4/1/5
  15.  अन्यतो घीष्, वही 4/1/40
  16.  शाघर्गरवाद्यर्×ा घीन्, वही 4/1/73
  17.  अघुत, वही 4/1/66
  18.  यूनस्ति, वही 4/1/77
  19.  ट्टच्याघ्, शा.व्या. 1/3/11
  20.  नृदुगिद×वोस्वसादेर्घी, वही 1/3/7
  21.  उफस्तो{प्राणिनश्चायुरज्वादिभ्यः, वही 1/3/71
  22.  यूनस्तित्, वही 1/3/76
  23.  शा.व्या. 4/3/58
  24.  प्रभा कुमार, जै.सं.व्या.यो., पृ. 167-168

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