जैन व्याकरण में शाकटायन का अवदान
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Author(s):
VANDANA RANI , SAMPAT KUMAR
Vol - 6, Issue- 2 ,
Page(s) : 40 - 44
(2015 )
DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES
Abstract
भारतवर्ष विविध संस्कृतियों का पोषक है। इतिहास साक्षी है कि इस राष्ट्र की गोद में अनेक संस्कृति व सभ्यताएँ पल्लवित एवं पोषित होती रही है, चूँकि अनेक संस्कृतियाँ अपने स्वसंस्कृति के निर्माण से पूर्व केवल विचारमात्र होती है और जैसे-जैसे पल्लवित, पुष्पित एवं संवर्धित होती हैं वैसे-वैसे ही वे संस्कृति का निर्माण करती हैं अर्थात् एक विचारधारा के अनुरूप सामाजिक पद्धति, राजनैतिक पद्धति, धार्मिक चिन्तन एवं शैक्षिक संवर्धन का विकास होना।
- अत्यक्तानुकरणस्यात इतौ, अष्टा. 6/1/98
- अत्यक्तानुकरणस्थानेकाचो{त इतौ, चा.व्या. 5/1/102
- डाजर्हस्येतावतः, जै.व्या. 4/3/85
- डाज्भजो{तो लुगितो, शा.व्या. 1/1/127
- शाकटायन व्या. 1/3/97, 98
- वही, 1/3/100
- वही, 1/3/127
- शा.व्या. 1/3/135
- वही, 1/3/152
- वही, 1/3/163
- अजाद्यतष्टाप्, अष्टा. 4/14
- डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्, वही 4/1/13
- यघश्चाप्, वही 4/1/74
- ट्टन्नेभ्यो घीप्, वही 4/1/5
- अन्यतो घीष्, वही 4/1/40
- शाघर्गरवाद्यर्×ा घीन्, वही 4/1/73
- अघुत, वही 4/1/66
- यूनस्ति, वही 4/1/77
- ट्टच्याघ्, शा.व्या. 1/3/11
- नृदुगिद×वोस्वसादेर्घी, वही 1/3/7
- उफस्तो{प्राणिनश्चायुरज्वादिभ्यः, वही 1/3/71
- यूनस्तित्, वही 1/3/76
- शा.व्या. 4/3/58
- प्रभा कुमार, जै.सं.व्या.यो., पृ. 167-168
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