Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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दलित साहित्य में यथार्थवाद: एक विश्लेषण

    1 Author(s):  DR.UMESH KUMAR

Vol -  3, Issue- 1 ,         Page(s) : 70 - 77  (2012 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

साहित्य में यथार्थवाद को लेकर लम्बी बहसें हुई हैं। दलित साहित्यकार हिन्दी साहित्य में यथार्थ अभिव्यक्ति कीपरम्परा कबीर से देखते हंै, जब वे कहते हैंे कि ‘मैं कहतां आंखिन की देखी। तू कहता कागद की लेखी।’ वेखुद को इसी परम्परा से जोड़ते हैं। आंखिन की देखी को अभिव्यक्ति देकर दलित साहित्य ने दलित समाज कीवास्तविकताओं का जैसा यथार्थ पाठकों के सामने रखा है, वैसा पहले कभी किसी ने नहीं किया है, इसलिएयथार्थवाद को साहित्य में लाने का श्रेय दलित साहित्यकार खुद को देते हैं तो बिल्कुल ठीक देते हैं।

1 कंवल भारती, दलित साहित्य की अवधारणा, पूर्वोक्त, पृष्ठ 78-79
2 वही, पृष्ठ 76
3 वही, पृष्ठ 76
4 वही, पृष्ठ 76
5 देखें, डाॅ. तेज सिंह, दलित समाज और संस्कृति में, ‘दलित सामंत का स्त्री विरोध चिंतन’ शीर्षक अध्याय, 
आधार प्रकाषन, पंचकूला, हरियाणा, 2007
6 कंवल भारती, दलित साहित्य और विमर्श के आलोचक, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 
2009, पृष्ठ 13
7 ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पूर्वोक्त, पृष्ठ 8
8 वही, पृष्ठ 82
9 हरिनारायण ठाकुर, दलित साहित्य का समाजशास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2009, 
पृष्ठ-115
10 रमणिका गुप्ता (संपा.), दलित चेतना: सोच, पूर्वोक्त, भूमिका
11 कंवल भारती, दलित साहित्य की अवधारणा, पूर्वोक्त, पृष्ठ 104-105
12 डाॅ. विजय कुमार ‘संदेश’ तथा डाॅ. नामदेव (संपा.), दलित चेतना और स्त्री विमर्श, क्लासिकल पब्लिशिंग 
कम्पनी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2009, पृष्ठ 64
13 देखें, बजरंग बिहारी तिवारी, दलित साहित्य में स्त्री - विमर्ष, कथादेश, जनवरी 2003
14 डाॅ. तेज सिंह, दलित समाज और संस्कृति, पूर्वोक्त, पृष्ठ 194
15 देखें, गंगा सहाय मीणा का लेख ‘दर्शन का बलात्कार’, युद्धरत आम आदमी, जनवरी - मार्च 2004
16 जयप्रकाश कर्दम, बलात्कार का दर्शन, युद्धरत आम आदमी, अक्टूबर-दिसंबर, 2003, पृष्ठ 16
17 डाॅ. तेज सिंह, दलित समाज और संस्कृति, पूर्वोक्त, पृष्ठ 195
18 वही, पृष्ठ 195
19 वही, पृष्ठ 195

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