Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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बदलते आर्थिक परिवेश और शिक्षा

    1 Author(s):  ANUPAM JAYASWAL

Vol -  10, Issue- 3 ,         Page(s) : 11 - 14  (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

शिक्षा और समाज एक दूसरे से पूर्णतया सम्बन्धित हैं एवं विभिन्न आयामों में एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जिस प्रकार शिक्षा समाज के सामाजिक, आध्यत्मिक और आर्थिक आधारों का निर्माण करती है उसी प्रकार समाज के शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक तत्व शिक्षा को प्रभावित करते हैं। शिक्षा के सर्वांगीण विकास के आर्थिक तत्व ने शिक्षा के अन्य तत्वों को पीछे छोडकर शिक्षा को ही इतना दुष्प्रभावित कर दिया है कि आधुनिक समाज में लोग शैक्षिक विकास का अर्थ आर्थिक विकास समझने लगे हैं। शिक्षा दर्शन का एक नया प्रारूप ‘शिक्षा का आर्थिक आधार‘ सर्वोपरि होता जा रहा है। आज शिक्षा को मानव के आर्थिक स्तर से सम्बंधित माना जाता है, यह एक आम धारणा है कि व्यक्ति यदि उच्च आर्थिक वर्ग से सम्बंधित है तो वह पर्याप्त रूप से शिक्षित भी होगा, या फिर ये कहें कि उच्च आय वर्ग के व्यक्ति अधिक शिक्षित, धार्मिक और संस्कारी होते हैं, अर्थात शिक्षित होने का प्रमाणीकरण अर्थ आधारित हो चला है। प्राचीन काल में शिक्षा का स्वरुप देश व् काल के अनुसार तय होता था, जैसे यूनानी समाज में शिक्षा वह थी जो राजनीतिक, मानसिक, शारीरिक, और नैतिक सौन्दर्य प्रदान करे। रोमन समाज की शिक्षा केवल वीर सैनिक उत्पन्न करने से सम्बंधित थी, इसी प्रकार से प्राचीन भारतीय समाज में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में नैतिक गुणों का विकास करके उसे ईश्वरीय सत्ता के अधीन रहते हुए जीवनयापन में सक्षम बनाने से था। तत्कालीन भारतीय समाज में ईश्वरीय तत्व की प्रधानता थी, वास्तव में मनुष्य उस प्रत्येक तत्व जिनसे वह डरता था, उनमें ईश्वर की स्थापना कर दिया करता था।

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