Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

Impact Factor* - 6.2311


**Need Help in Content editing, Data Analysis.

Research Gateway

Adv For Editing Content

   No of Download : 109    Submit Your Rating     Cite This   Download        Certificate

पाणिनीय व्याकरण में विभाषा का स्वरूप

    1 Author(s):  AVDHESH KUMAR

Vol -  4, Issue- 3 ,         Page(s) : 117 - 121  (2013 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

“व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम्‌ ” शब्दों का विवेचन करने वाला शास्त्र व्याकरण है। आचार्य पतञ्जलि ने षडङ्गों में व्याकरण को प्रधान माना है और तद्विषयक यत्न को फल देने वाला कहा है-

  1.   ;कद्ध स्वकार्यनिवत्र्तनक्षम इत्यर्थः। स हि लोके समर्थः इत्युच्यते। ;काशिकावृत्ति न्यास 2.1.1द्ध
  2. ;खद्ध स्वकार्यनिष्पादन क्षमो हि लोके ‘समर्थः’ इत्युच्यते। ;काशिकावृत्तिपदम×जरी 2.1.1द्ध
  3.   ‘समर्थः’ इति विशेषणोपादानसामथ्र्यद्विशेषः कश्चिदाश्रीयते। स च- वृत्यर्थं यद्वाक्यमुपादीयते, प्रत्यासत्तेस्तदर्थ प्रतिपादने या शक्तता तल्लक्षणो विज्ञायत इत्याह- विग्रहवाक्यार्थाभिधन् इत्यादि- काशिकावृत्तिन्यास. 2.1.1
  4.   विशेषेण गृह्यते विज्ञायते{नेनेति विग्रहः, विग्रहश्च तद्वाक्य×चेति विग्रहवाक्यम् अथवा विशेषेण ग्रह्णं विग्रहः, विग्रहार्थं यद् वाक्यं तद् विग्रहवाक्यम्। शाकपार्थिवत्वान्मध्यपद् लोपी समासः। विग्रहवाक्यान्यार्थो विग्रहवाक्यार्थः तदभिधने तत्प्रत्यायने यः शक्तः स समर्थो वेदितव्यः। काशिका वृत्ति-न्यास 2.1.1
  5.   स पुनरर्थः संसर्ग - भेदश्च भेदसंसर्गो वा। तत्रा स्वविशेषस्य स्वामिविशेषेण स्वामिविशेषस्य च स्वविशेषेण यः सम्बन्ध्ः स संसर्गः आख्यायते। स्वान्तरस्य स्वाम्यन्तरेभ्यः, स्वाम्यन्तरस्य स्वान्तरेभ्यश्च व्यावृत्तिः भेदः आख्यायते। का.वृ.न्या. 2.1.1
  6.   सविशेषणानां वृत्तिर्न, वृत्तस्य वा विशेषणयोगो न। म.भा.वा. 2.1.1
  7.   यः कष्टश्रितः स महत्कर्म करोतीप्यादि प्रतीते क्रियां विशेषणं का महत्त्वं प्रतीयेत, न तु कष्टविशेषणम्। लोके प्रयुज्यमानस्य साध्ुत्वमसाध्ुत्वं च विचार्यते गोगाव्यादिशब्दवत्। महत्कष्टश्रित इत्ययं तु महत्कष्टं श्रित इत्येतद्वाक्यार्थे नैव प्रयुज्यते। प्रयुक्तानां चेदमन्वाख्यानम्। अतो नात्रा समास भविष्यतीत्यर्थः। महाभाष्यप्रदीप 2.1.1
  8.   महाभाष्य 4.1.82
  9.   महाभाष्य 2.1.1
  10.   वाक्यपदीयम् वृत्तिसमुद्देश 43
  11.   याज्ञिकों के मत में इसे अग्नि संसर्ग भी कहते हैं। ध्र्मसिन्ध्ु परिच्छेद में दुबारा विवाह करने पर दोनों विवाह कालों में आधन की हुई आवसध्याग्नियों का एकीकरण कहा गया है। श्रौत अग्नियों में भी प्रतिदिन गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय में अग्नि का स्थापन होता है। यहाँ भी दो अग्नियों का संसर्ग होता है। महाभाष्य, युध्ष्ठििर मीमांसक

*Contents are provided by Authors of articles. Please contact us if you having any query.






Bank Details