Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh
ISSN 2321 - 9726 (Online) New DOI : 10.32804/BBSSES
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आधे-अधूरे नाटक में यथार्थ-बोध
1 Author(s): ADITYA PATHAK
Vol - 11, Issue- 9 , Page(s) : 24 - 26 (2020 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES
मानव-जीवन में कुछ समस्याएँ हर युग में विद्यमान रहती हैं जो समय और समाज के अनुरूप अपना स्वरूप बदल देती हैं। उन बदली हुई समस्याओं के लिए नए तरीकों से समाधान के लिए चिंतन करना पड़ता है। रचनाकार उन्हीं समस्याओं एवं उनसे उत्पन्न विभिन्न विकृत परिणामों की ओर इशारा करता है। 'आधे-अधूरे' नाटक के रचनाकर ने भी अपने युग की समस्याओं की ओर इशारा किया है जो आने वाले समय में नग्नता के साथ हमारे बीच उपस्थित हैं।